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गोदी-विरोधी पत्रकारों के नाम एक खुला पत्र

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  प्रिय गोदी - विरोधी पत्रकारगण , एक जागरूक नागरिक और मीडिया का छात्र होने के नाते , मौजूदा परिदृश्य मुझे बहुत ही चिंतित करते हैं।   संवादहीनता की यह स्थिति देश और समाज के लिए बड़ी विकट होती जा रही है। एक तरफ़ चाटूकारों की फ़ौज है , तो दूसरी तरफ़ अतिसंवेदनशील पत्रकारों की। मेरा यह पत्र चाटूकारों के लिए नहीं बल्कि सच दिखाने और बताने वालों के लिए है। आपसे मेरी एक गंभीर शिकायत है। आपकी पत्रकारिता में तंज़ दिखता है। संवेदनाएँ दिखती हैं। क्रोध , कुंठा और झुँझलाहट दिखती है। मेरी राय में एक पत्रकार के शब्दों में निरपेक्ष सच दिखना चाहिए , सभी पक्षों की बात दिखनी चाहिए , लेकिन भावनाएँ नहीं दिखनी चाहिए , आपकी राय नहीं दिखनी चाहिए। झूठ , प्रपंच , पाखंड , अंध - भक्ति , गुंडागर्दी और सांप्रदायिक विद्वेष के इस दौर में हर सोच सकने वाला इंसान अवसादग्रस्त है , इसमें कहीं से कोई दो राय नहीं है। लेकिन आप पत्रकार हैं। अवसादग्रस्त दिखने का प्रिविलेज आपके पास नहीं ह...

रोज़ मर रही लाखों लावारिस गायों के लिए प्रतिशोध की भावना आपके मन में क्यों नहीं पनपती?

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राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के कई इलाकों में, 2012 के सरकारी आंकड़ों के हिसाब से भी देखें तो बारह हज़ार से अधिक मवेशी - जिनमें बछड़े और बैल समेत 'पवित्र' गाएं जिन्हें हम 'माता' का दर्जा देते हैं  - सड़कों, गलियों और मोहल्लों में कूड़े के ढेर में अपने लिए खाना तलाशते मिल जाएंगे. जबकि यहीं से 45 किलोमीटर दूर दादरी, उत्तर प्रदेश में हिन्दू अतिवादियों का एक समूह 58 वर्षीय मोहम्मद अख़लाक़ को पीट-पीटकर जान से मार डालता है, इसलिए कि उनके घर में कथित तौर पर गौमांस रखा और खाया जा रहा था. ये वही उत्तर प्रदेश है जहां सबसे अधिक बारह लाख से ज़्यादा मवेशी सड़कों पर बिना किसी सुरक्षा के दयनीय हालत में जीते हैं. ये मवेशी सड़कों के किनारे भोजन की तलाश में कूड़े की ख़ाक छानते हैं और कभी प्लास्टिक तो कभी मेडिकल वेस्ट खाकर मरते हैं या हाइवे पर दुर्घटना का शिकार होकर जान गंवाते हैं. इन्हें लेकर गौ-माता के इन सपूतों में संवेदनशीलता क्यों नहीं है? क्या इन्हें केवल तभी फ़र्क पड़ता है जब मुस्लिम समुदाय पर गौमांस खाने का आरोप लगता है?  बल्कि अगर अख़लाक़ के घर में गौमांस होता भी, और वो वाक़ई गौमांस खा भी ...