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भाषा को एक ऐसा दरिया होने की ज़रूरत है, जो दूसरी भाषाओं को भी ख़ुद में समेट सके

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अपनी ज़िंदगी के 20 वें वसंत तक मैं भी अपने कई बिहारी साथियों की तरह Vast को भास्ट , शाम को साम , ढोल को ढ़ोल , सड़क को सरक और Fool को फूल बोलता रहा।   अफ़सोस इस बात का नहीं था कि मैं ग़लत बोलता या ग़लत लिखता था , तकलीफ़ इस बात की थी कि मुझे यह पता ही नहीं था कि मेरे लिखने और बोलने में कितनी ग़लतियाँ थीं। इसके लिए ज़िम्मेदार किसे ठहराया जाए ? अपनी कमअक़्ली को या पढ़ाई - लिखाई की उस परिपाटी को , जिसमें मैं बड़ा हुआ ? अगर आप भी मेरे ही आयुवर्ग (30-35 वर्ष ) और मेरी ही पृष्ठभूमि के हैं , तो आपको बचपन में रट्टा मारकर वर्णमाला के अक्षरों को याद करते हुए यह बोलना याद होगा - य , र , ल , व , ह , तालव्य स , दन्त स , मूर्धन्य स , अच्छ , त्र , ज्ञ। और ज़रा वह भी याद कीजिए , W से व , Bh से भ। किताबों में कभी नहीं बताया गया कि V से भ होता है , लेकिन हम इंडिया इज अ भास्ट कंट्री बोलने के आदि हो गए थे। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उच्चारण का सूत्र स