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मांझी द माउंटेन मैन: शानदार, ज़बरदस्त, ज़िंदाबाद

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बायोपिक बॉलीवुड में बहुत कम बनते हैं और जो बनते भी हैं भी हैं उनमें से ज़्यादातर में प्रोपैगैंडा की बू आती है. मुझे याद आने वाली आख़िरी बायोपिक भाग मिल्खा भाग है जिसमें मिल्खा सिंह को वास्तविक के बजाय अद्भुत बनाने का यत्न करते हुए फ़रहान अख्तर को इस क़दर बलिष्ठ बनाया गया कि वो किसी भी कोण से मिल्खा लगते ही नहीं. जबकि वह फिल्म मांझी, द माउंटेन मैन से ज़्यादा सत्यता और प्रमाणिकता का दावा करती है. बहरहाल लौटकर आते हैं उस पगले पहाड़तोड़ुए पर जिसके जीते जी न तो मीडिया ने उसका संज्ञान लिया, न लोगों ने और न ही सरकार ने. केतन मेहता और उनकी पूरी टीम यह फ़िल्म बनाने के लिए बधाई के पात्र हैं. दशरथ मांझी के बारे में जितना पढ़ा-देखा और सुना है उस लिहाज़ से नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी दशरथ मांझी के किरदार को परदे पर उतारते हुए नहीं बल्कि उसे जीवंत करते हुए दिखते हैं. दशरथ का किरदार इस फ़िल्म में बड़ा मासूम है, यह मासूमियत उसे पिटवाती है, प्रेम करवाती है, उदारवादी बनवाती है और यही मासूमियत उसे ताजमहल जितने ऊंचे पहाड़ को छैनी और हथौड़े जैसी अदनी चीज़ों से तोड़ डालने का हौसला भी देती है. फ़िल्म आपको यक़ीन करवाती है कि