संदेश

मार्च, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जब नाश मनुज पर छाता है...

चित्र
द इंडियन एक्सप्रेस से लिए गए इस आलेख में सुशांत सिंह बता रहे हैं कि कैसे रवांडा से मिले सबक़ को याद करें तो व्हाट्सऐप पर तेज़ी से फैल रहे नफ़रत भरे संदेशों को लेकर चिंतित होना लाज़िमी है. व्हाट्सऐप के ज़रिए हमें जो फ़र्ज़ी मैसेजेज़, ज़हर उगलते वीडियोज़ मिल रहे हैं, उन्हें अप्रासंगिक क़रार देकर सीधा ख़ारिज नहीं किया जा सकता. साल 1994, देश रवांडा. 12 हफ़्तों के दौरान यहां हुतु समुदाय के लोगों ने तुत्सी समुदाय के क़रीब आठ लाख लोगों की हत्या की थी. इसे आधुनिक युग का सबसे ख़तरनाक़ नरसंहार माना जाता है. हिंसा के इस दौर में वहां के एक प्राइवेट रेडियो-टेलिविज़न लिब्रे दस मिल कालिन्स (RTLMC) पर प्रचारित नारा था - सारे क़ब्रिस्तान अभी भरे नहीं हैं.  हालांकि इस नरसंहार की जड़ें रवांडा के औपनिवेशिक इतिहास में समाई हुई हैं, लेकिन नफ़रत की इस आग को हवा देने का काम मीडिया ने किया था, ख़ास तौर पर रेडियो ने. रवांडा के नरसंहार को भड़काने और फैलाने में मीडिया एक ताक़तवर हथियार साबित हुई. 23 साल बीत चुके हैं, और भारत अभी रवांडा बनने से कोसों दूर है, लेकिन उस दौरान मिले सबक़ आज की परिस्थिति में बहुत बड़ी अहमियत रखते ह