भाषा को एक ऐसा दरिया होने की ज़रूरत है, जो दूसरी भाषाओं को भी ख़ुद में समेट सके

अपनी ज़िंदगी के 20वें वसंत तक मैं भी अपने कई बिहारी साथियों की तरह Vast को भास्ट, शाम को साम, ढोल को ढ़ोल, सड़क को सरक और Fool को फूल बोलता रहा। 

अफ़सोस इस बात का नहीं था कि मैं ग़लत बोलता या ग़लत लिखता था, तकलीफ़ इस बात की थी कि मुझे यह पता ही नहीं था कि मेरे लिखने और बोलने में कितनी ग़लतियाँ थीं।

इसके लिए ज़िम्मेदार किसे ठहराया जाए? अपनी कमअक़्ली को या पढ़ाई-लिखाई की उस परिपाटी को, जिसमें मैं बड़ा हुआ?


अगर आप भी मेरे ही आयुवर्ग (30-35 वर्ष) और मेरी ही पृष्ठभूमि के हैं, तो आपको बचपन में रट्टा मारकर वर्णमाला के अक्षरों को याद करते हुए यह बोलना याद होगा - , , , , , तालव्य , दन्त , मूर्धन्य , अच्छ, त्र, ज्ञ। और ज़रा वह भी याद कीजिए, W से , Bh से भ। किताबों में कभी नहीं बताया गया कि V से होता है, लेकिन हम इंडिया इज भास्ट कंट्री बोलने के आदि हो गए थे।


इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उच्चारण का सूत्र समझाकर भी हमारा एडुकेशन सिस्टम हमें यह समझा सका कि तालू से कभी "" का उच्चारण हो ही नहीं सकता, उससे "" का ही उच्चारण निकलेगा। अपनी बत्तीसी को नज़दीक लाए बिना "" का उच्चारण निकल ही नहीं सकता। मूर्धन्य तो ख़ैर अभी भी टेढ़ी खीर है।


जब अपनी ही मातृभाषा में सही बोलना आए तो उर्दू और अंग्रेज़ी के लफ़्ज़ों का सही उच्चारण कर पाना तो ख़याली पोलाव ही थे।


लेकिन वह कहावत ग़लत नहीं है कि जब जान पर बन आए तो एक कोस दूर जल रही डिबरी भी कड़कड़ाती ठंड से लड़ने का साहस दे जाती है। संक्षेप में, डूबते को तिनके का सहारा।


दिल्ली तो गया था पढ़ाई करने, लेकिन ख़र्च इतना था कि घर से भेजे गए पैसे नाकाफ़ी होते थे। कॉल सेंटर में नौकरी करने के अलावा और कुछ सूझ रहा नहीं था। मुश्किल बस यह थी कि कभी किसी तो कभी किसी और शब्द के ग़लत उच्चारण के चलते जॉब मिल ही नहीं पाती थी। तब डोमेस्टिक और इंटरनेशनल दोनों ही तरह के कॉलसेंटरों का स्टैंडर्ड बड़ा हाई हुआ करता था। 


यह समझने में ज़्यादा देर नहीं लगी कि जब तक अपनी ज़बान ठीक नहीं करूँगा, उर्दू और अंग्रेज़ी की ज़बान ठीक नहीं होने वाली। और जब तक ज़बान ठीक नहीं होती, जॉब मिलने वाली नहीं है। 


हिन्दी ठीक करना उतना भी मुश्किल नहीं था। कॉलेज के गुरुओं और दिल्ली के साथियों की दया से इतना समझ गया कि मूलतः ड़, और से शुरू होने वाले शब्दों (मसलन आराम को अराम या पाकिस्तान को पकिस्तान बोलना) का उच्चारण गड़बड़ हो रहा है।


बचपन की सरल हिन्दी व्याकरण वाली उन्हीं किताबों ने बताया कि ड़ सही तरह से बोलने के लिए अपनी जिह्वा को अपने तालू से टच करवाना होगा, जबकि बचपन में मुख के अंदर की तमाम मुद्राओं को दर्शाने वाले चित्रों के बावजूद ड़ को बोलने की ही आदत रही। दुर्भाग्य यह कि ऐसी आदत सिर्फ़ हम विद्यार्थियों की नहीं, बल्कि उन्हीं किताबों से हमें पढ़ाने वाले हमारे हिन्दी के शिक्षकों की भी थी।


बहरहाल कुछ ही महीनों में हिन्दी का ठीक-ठाक उच्चारण करने लगा, लेकिन यह फ़ॉर्मूला उर्दू और अंग्रेज़ी पर लागू नहीं हो पाता। उसके लिए कुछ दूसरा जुगाड़ निकालने की ज़रूरत थी, क्योंकि वहाँ तो शब्दावली की कंगाली भी एक बड़ी समस्या थी।


आख़िर यह पता कैसे चले कि मज़दूर में तो ज़ का उच्चारण होता है, लेकिन मजबूर में का उच्चारण होता है? यह कैसे समझ आए कि Individual (इंडिविजुअल) में तो का उच्चारण होता है, लेकिन Visual में वही बोलने के लिए जीभ के अगले हिस्से को उल्टा घुमाना पड़ जाता है, जबकि Visa में ज़ का उच्चारण होता है?


अंग्रेज़ी के साथ भी ज़्यादा मुश्किलें नहीं हुईं। सिंपल ज़बान है, बस पैटर्न समझने की देर है। 


J है तो , Z है तो ज़, D और DG वाले में (जैसे Indvidual, Grudge) और Si और Su वाले में जीभ का अग्रभाग उल्टा घुमाकर कुछ ऐसे बोलना है जैसे और का मेल बन जाए (जैसे Vision, Measure, Pleasure, Treasure आदि) Sh है तो , S है तो स। चाहे Ph हो या F हो, उच्चारण फ़ ही होगा क्योंकि अंग्रेज़ी में तो का साउंड होता ही नहीं है, ही ड़ का साउंड होता है, और ही क्ष का साउंड होता है। इसलिए पैटर्न तलाश पाए तो अंग्रेज़ी बोलने को दुरुस्त करना कोई बहुत मुश्किल चुनौती नहीं थी।  


असली दुश्वारियाँ तो उस ज़बान को ठीक करना थीं, जिसके बिना हिन्दी अधूरी है।


उर्दू के लफ़्ज़ों के लिए ख़ुद की मरम्मत के दो ही तरीक़े समझ आए और बहुत हद तक कारगर भी रहे, पहला तो अपने आस-पास उन लोगों की तलाश करना जो शुद्ध बोलते हों, और दूसरा उन सीखे हुए नए शब्दों को ठीक उसी तरह से लिखने की कोशिश करना, जैसे उन्हें बोला जाएगा।


अपनी लेखनी में नुक़्ते का इस्तेमाल शुरू करने का सिलसिला इसी तलफ़्फ़ुज़ को ठीक करने की चाहत के साथ शुरू हुआ। सही बोलने के लिए सही लिखना और सही लिखने के लिए सही पढ़ना साथ ही सही सुनना बहुत ज़रूरी है।


हिन्दी में उर्दू के इतने लफ़्ज़ हैं कि शायद उन लफ़्ज़ों के बिना हिन्दी मुक़म्मल ही नहीं हो पाएगी। क्या बिना दुकान के हमारी दिनचर्या पूरी होगी? क्या बिना ख़ुशी और बिना ग़म के हमारे जज़्बात शेयर हो पाएँगे?


भले ही ग़लत उच्चारणों के साथ, मगर क्या इन शब्दों के बिना हमारी जवानी पूरी हो सकती है? कॉलेज के दिनों में "बेवफ़ाई" का रोना, घर बनवाने में "मज़दूरों" की "मेहनत", "मजबूरी" में मैगी खाना, जॉब के चक्कर में "जुदाई" सहना, "बेरोज़गारी" के "आलम" में "ज़माने" का ताना, अपने "ख़्वाबों" में "ख़ज़ाने" की "तलाश", बचपन में चाचा का टिफ़िन देने "क़ारख़ाने" जाना वग़ैरह-वग़ैरह।


क्या आप चाहेंगे कि क़ारख़ाने जाने की जगह आप कार खाने जाएँ? 


कई बड़े विद्वान साथियों की दलील है कि जब हिन्दी में नुक़्ते का कॉन्सेप्ट ही नहीं है, तो इसे जबरन जटिल बनाने की क्या आवश्यकता है। मैं मानता हूँ कि लॉ एंड ऑर्डर के लिए बनाए गए क़ानूनों के अलावा अनिवार्यता तो किसी भी चीज़ की नहीं होनी चाहिए, लेकिन बहुधा फ़र्क़ स्थापित करना ज़रूरी हो जाता है। "दशहरे में नौ कन्याओं को जमाने का दस्तूर है" और जाने-अनजाने ही सही, "मर्दों के भीतर मिसॉजनी ज़माने का दस्तूर है।"


अंत में जाने-माने सक्रीनप्ले राइटर जावेद सिद्दिक़ी साहब को क्वोट करूँगा, "जो भाषा दरिया की तरह हो, दूसरी ज़बानों को भी ख़ुद में इस तरह समेट ले जैसे वे उसी भाषा की हैं, तो उस भाषा का विस्तार होते रहना तय है।"


ड़ और ढ़ में तो हम नीचे बिंदी लगाते ही हैं , बस उसी परंपरा को अगर दूसरे अक्षरों पर भी ज़रूरत के अनुसार लागू कर दें तो इससे क्या बिगड़ जाएगा? मुझे नुक़्ते से परहेज़ का तो मक़सद समझ आता है, ही नुक़्ते का इस्तेमाल करने का कोई फ़ायदा समझ आता है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

The youngest, the oldest, and the most controversial advocate of Indian history

बीसीसीआई को याचक से शासक बनाने वाले जगमोहन डालमिया