प्राइवेट से मोह या पब्लिक से मुक्ति

एक समय पर जिस BSNL/MTNL की पहुँच हर हाथ में थी, उसे प्रचारित, प्रसारित और सशक्त करने में प्रधानमंत्री किसी भी तरह की दिलचस्पी दिखाते, तो वह भी आत्मनिर्भर हो जाता और दूसरी टेलीकॉम कंपनियों से टक्कर लेता. लेकिन प्रधानमंत्री की दिलचस्पी नजाने जीयो” का निःशुल्क (अथवा "सशुल्क", जिसकी शर्तें हम आम लोगों को मालूम नहीं) ब्रांड एंबेसडर बनने में क्यों है?

सरकारी बैंकिंग का उद्धार करने के लिए उचित कदम उठाने के बजाय, अंतिम आदमी तक पहुँच रखने वाले सरकारी और सहकारी बैंकों के जाल को संकीर्ण करने का पुरज़ोर प्रयास करने में लगी इस सरकार के प्रधानमंत्री की दिलचस्पी विदेशी कंपनी PAYTM का पोस्टरबॉय बनने में क्यों है?


यह सुनिश्चित करने के बजाय कि किसानों की बिक्री का प्रसार हो और वाजिब दरों पर हो, वे यह सुनिश्चित करने में क्यों लगे हैं कि किसानों को सम्मान निधि के नाम पर मामूली-सीरिश्वत” खिलाकर उनका अनाज बड़े व्यापारियों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाए, जबकि किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिएफ़र्ज़ी” किसानों के साथ स्क्रिप्टेड बातचीत कर ली जाए? 

अति-आत्मविश्वास की पराकाष्ठा तो यह कि झूठ-मूठ की बातों का नाटक करके वे देश की पूरी जनता को ठग लेने की अपेक्षा या यूँ कहें महत्वाकांक्षा रखते हैं. परजीवी, आंदोलनजीवी, खलिस्तानी, अर्बन नक्सल जैसी संज्ञाएँ देकर उनकी आवाज़ को दबाने, अपनों के ही बीच उन्हें विलन बनाने की पूरी कोशिश 100 दिन बाद भी जारी है. भरी सभा में जहाँ वे आंदोलन को पवित्र बताते हैं, वहीं आंदोलन करने वालों को “पापी”. आंदोलन करने वालों से ही तो आंदोलन है. अगर वे पापी हैं तो भला आंदोलन कैसे पवित्र है?

कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य है कि वे तमाम क्षेत्र, जिन्हें बुलंदी पर पहुँचाने के लिए हर पाँच साल पर जनता चुनाव करती है, उनसे मुँह मोड़ने में तो इस सरकार ने कोई कसर छोड़ी है, और ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले कांग्रेस की किसी सरकार ने छोड़ी थी. हाँ यह ज़रूर था कि पहले की सरकारों में देश के बड़े पूँजीपतियों के संपूर्ण एजेंडे को लागू करने का दुस्साहस नहीं था. चोरी तो वे भी करते थे लेकिन सीनाज़ोरी में उनका इस सरकार से कोई मुकाबला नहीं था.


कांग्रेस की सरकारों ने लोक कल्याण के सिद्धांतों पर गढ़े गए भारत में प्राइवेट पार्टियों के लिए सिर्फ़ स्पेस बढ़ाया, बल्कि सरकारी सिस्टम को बर्बाद करके उसे इस हद तक पंगु कर दिया कि इन संस्थानों पर निर्भर एक बड़ी आबादी जितना पैसा पहले बचत में जुटा लिया करती थी, अब उससे कहीं ज़्यादा पैसे अपने बच्चों की पढ़ाई और अपने प्रियजन के इलाज में खर्च करने पर मजबूर है


इससे देश की कुल आर्थिक पूँजी में कमी नहीं होती, क्योंकि उनकी बचत भले ही खर्च हो गई लेकिन वही पैसा प्राइवेट स्कूल में पहुँचकर भी सरकारी गणना का हिस्सा बना रहा. GDP की दरें हमारे खर्च का हिसाब रखती है, और उस खर्च की ताकत के बिना पर यह आँकती है कि समृद्धि के पैमाने पर हम कहाँ खड़े हैं. लेकिन सिक्के का एक पहलू यह भी है कि खर्च की उस भारी-भरकम राशि का एक हिस्सा वह है, जो हम न चाहकर भी खर्च करने को मजबूर हैं. एयरपोर्ट पर प्यास लगेगी, तो 20 के बदले 100 रुपए देना आपकी मजबूरी है, चाहत नहीं. स्कूल की फ़ीस अगर 100-200 के बदले 2,000-3,000 है, तो यह खु़शी का खर्च नहीं, थोंपा गया खर्च है. इलाज में 500 रुपये के बदले अगर 5,000 रुपए देने पड़े, तो यह विवशता है और कुछ नहीं. 


सरकारी इकाइयों को कभी उस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा नहीं बनाया जाता, जो सरकारें प्राइवेट कंपनियों के बीच देखना चाहती हैं. प्रसार भारती से लेकर भारतीय संचार नगर लिमिटेड तक, राजकीय विद्यालयों से लेकर उपचार केंद्रों तक और BHEL से लेकर HAL जैसे भीमकाय कारखानों तक, वक़्त के साथ सभी सरकारों ने इन्हें और कमज़ोर ही किया है.


दिल्ली में एक बस कंडक्टर ने यही कोई दस साल पहले एक क़िस्सा सुनाया था कि कैसे DTC बसों के स्टाफ़ ब्लूलाइन वालों से रिश्वत लेकर अपनी बसों को बीच रास्ते खराब बता दिया करते थे. जब जनता के लिए सरकारी रास्तों को इतना जर्जर बना दिया जाएगा कि वे इस रास्ते पर आएँ ही नहीं, तो ज़ाहिर है प्राइवेट ही फलेगा-फूलेगा. आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि टक्कर सिर्फ़ एयरटेल, वोडाफ़ोन और जियो के बीच न हो बल्कि एक चौथा और उतना ही सशक्त खिलाड़ी BSNL या MTNL भी हो. DPS, DAV और सेंट पॉल ही आपस में टक्कर न करें, बल्कि केंद्रीय विद्यालय, नवोदय या बीएसएस कॉलेजिएट जैसा कोई सरकारी हाई स्कूल भी उन्हें बराबर की टक्कर दे रहा हो. जब सरकारी संस्थानें अच्छे मिसाल सेट करेंगे, तो प्राइवेट पार्टियों पर और अच्छा करने का दबाव होगा.


जनकल्याण के लिए बने विभागों को घाटे और मुनाफ़े का कारोबार बताकर या तो उन्हें बंद करने या फिर बेच देने की वकालत की जाती है. वहीं JNU जैसे जिन सरकारी संस्थानों ने साल दर साल अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है, उन्हें बेचने का कोई बहाना नहीं है, तो उनकी फ़ीस को एक-दो नहीं दस-दस गुना तक बढ़ा दिया जाता है. ग़रीबों और वंचितों के बच्चे भी ऐसी जगहों पर आला दर्जे की शिक्षा और आत्मविश्वास पाते हैं. इन संस्थानों की सफलता का पैमाना यूनिवर्सिटी विशेष का बही-खाता नहीं होता. सफलता का पैमाना इन संस्थानों से निकले वे लोग होते हैं, जो प्रशासनिक सेवाओं और राजनीति सहित कई तरह के उद्द्यम और उद्योगों का हिस्सा बनकर देश के नागरिक समाज और अर्थव्यवस्था, दोनों को मज़बूत बनाते हैं.

भारत की सरकारें, एक के बाद एक, दरअसल इस देश को चलाने का बेहद आसान और टिकाऊ रास्ता ढूँढने में लगी रही हैं. ऐसे में जनता का जागरूक होना कहीं ज़्यादा ज़रूरी हो गया है. चाहे समर्थक हों या विरोधी, तटस्थ हों या अनभिज्ञ, हम सबको कुछ बुनियादी बातों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है.


कृषि क़ानूनों को लेकर आखिर व्यापारियों के प्रति सरकार इतनी उदारता क्यों दिखा रही है? तमाम सरकारी निकायों को प्राइवेट करने पर इस सरकार का इतना ज़ोर क्यों है?


क्योंकि सरकार चाहती है कि देश को चलाने का काम निजी कंपनियाँ करें, और वह बस सिंहासन-रूढ़ होकर ईवेंट और सेमिनार, प्रचार और दुष्प्रचार करती रहे. ज़िम्मेदार भारतीय नागरिक होने के तौर पर हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हम कर चोरी करें, लेकिन खुद सरकार काम चोरी करती रहे. जिन कामों के लिए हम सरकार चुनते हैं, उन कामों को करने में कर का पैसा लगाने के बजाय सरकार पहले से ही “आत्मनिर्भर” प्राइवेट कंपनियों को साल दर साल आर्थिक राहत पैकेज देती है. 


इसे विडंबना ही कहेंगे कि जहाँ हज़ारों करोड़ के कर्ज़दारों के माथों पर बल तक नहीं पड़ते, वहीं चंद हज़ार या लाख रुपये के कर्ज़दार किसान और मज़दूर अपनी जान ले लेना मुनासिब समझते हैं.


प्रति वर्ष दो करोड़ रोज़गार का वादा इस सरकार ने अपने पहले ही कार्यकाल में किया था. छह साल से ज़्यादा गुज़र चुके हैं. लॉकडाउन को न भी गिनें, तो पाँच साल. क्या उन पाँच सालों में 10 करोड़ रोज़गारों का सृजन हुआ? 


130 करोड़ की आबादी के अनुपात में भारत में प्रति व्यक्ति 15 लाख रुपये का कालाधन लाने के जो वादे किए थे, उसके लिए नोटबंदी तो की, लेकिन क्या कुछ नतीजा निकला? मनमोहन सिंह को मौन-मोहन सिंह का नाम देने वाला दल इस सवाल पर खुद चुप क्यों है? रुपये के मुकाबले डॉलर की दिन-बदिन बढ़ती दरें, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से सस्ते आयात के बावजूद पेट्रोल, डीज़ल और LPG की दिन-दूनी रात-चौगूनी बढ़ती कीमतें, ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके बारे में सोचना नितांत ज़रूरी है, भले ही आप भाजपा समर्थक क्यों न हों.


सरकार विकास कार्यों पर फ़ोकस करने के बजाय सिर्फ़ इस बात पर फ़ोकस करे कि कैसे उसके कल्ट का विस्तार हो. प्रतिकूल धाराओं के आगे ऊँची और अटूट मेढ़ें कैसे लगाई जाए. जनता को बस दो ही विकल्प मिले, या तो सरकार के सुर में ताल मिलाकर कदमताल करे या टड्डू चाल की सज़ा झेले, तो यह कोई अच्छी बात नहीं है.


क्योंकि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन आपका जीना भी मुहाल होगा. आपके साथ भी वही होगा जो सरकार अपने विरोधियों को दुरुस्त करने के लिए कर रही है. पूरी शिद्दत से राष्ट्रीय संस्थानों को हथकंडों (CBI, ED, SEBI, INCOME TAX, POLICE) की तरह इस्तेमाल करना. 


आप भले ही यह कहते हों कि सरकार ने कोर्ट, CBI और पुलिस जैसी संस्थाओं की स्वतंत्रता को नहीं छेड़ा है, लेकिन राम मंदिर विवाद के सुलझने का सारा श्रेय मोदीजी को दे देते हैं. अगर काम अदालत ने किया तो मोदी जी की क्या भूमिका? और अगर मोदीजी को श्रेय दे रहे हैं, तो मानिए कि अदालत उनके इशारे पर काम कर रही है.


हम कब तक हिन्दू-मुसलमान, इंडिया-पाकिस्तान के तराज़ू पर डोलते रहेंगे? स्थिरता का मतलब क्या होता है? क्या सरकार का स्थिर और अस्थिर होना ही देश का स्थिर और अस्थिर होना है? क्या आए दिन जाति और संप्रदायों के बीच बढ़ती खाई हमें स्थिरता की ओर ले जा रही है? क्या ऐसे माहौल में हम उन्नति की ओर जा पाएँगे? अपनी कमियों से ध्यान भटकाने के लिए सरकार अक्सर हमें दूसरों पर ऊँगली उठाने और उनकी लानत-मलामत करने को उकसाती है. भारत की गरीबी छोड़कर पाकिस्तान की कंगाली देखिए, देश की सरकार चला रहे बीजेपी नेताओं की बेवकूफ़ियों को छोड़कर उस राहुल गाँधी को निशाना बनाइए, जिसके हाथ में देश तो क्या अब अमेठी तक की बागडोर नहीं रही. तथ्यों की जगह बस अनर्गल प्रलाप करने वाली मीडिया की जमात को आड़े हाथों लेने के बजाय निष्पक्ष पत्रकारों को विपक्षी बताइए.  


वेबसीरीज़ गुल्लक में, पड़ोस में एक बिट्टू की मम्मी रहती हैं. जब भी बेटा माँ-बाप के सवालों में घिरता है तो बिट्टू की मम्मी के करतूतों का क़िस्सा सुनाना शुरू कर देता है. यहाँ भी जब सरकार सवालों से घिरती है तो पब्लिक को गुमराह करने के लिए पड़ोस में एक बिट्टू की मम्मी तो है ही. अगर खुद से कंगाल और बदहाल मुल्क से तुलना कर अच्छा महसूस करने में आपको खुशी मिलती है, तो बेशक सरकार के ही सुर में पाकिस्तान-मर्दन कीजिए. कोई दिक्कत नहीं है. राहुल गाँधी को छोटा करके मोदीजी बड़े दिखने लगते हैं, तो बेशक देखिए. लेकिन याद रखिए कि मीडिया सैद्धांतिक रूप से ही विपक्ष है. उसका काम ही सरकार पर नज़र रखना और सरकार से सवाल पूछना है. मीडिया और सरकार का समझौता होने का मतलब है कि आपके पास सही सूचना कभी नहीं पहुँचेगी, जैसा कि हो भी रहा है.


“न्यू इंडिया, “आत्मनिर्भर भारत”, “मेक इन इंडिया”, “डिजिटल इंडिया”, “वन नेशन वन टैक्स” वग़ैरह-वग़ैरह की आड़ में सरकार ने मानो "सेल पर देश" कार्यक्रम छेड़ रखा हो. सरकार के रवैये से प्रतीत तो यही होता है कि उसे प्रतिकूल धाराओं की निगरानी के लिए गृह चाहिए, “देशभक्ति” की अलख जलाए रखने, “तथाकथित” दुश्मनों और बड़े पैमाने की अंतरराष्ट्रीय सौदेबाज़ियों के लिए रक्षा चाहिए, लोगों से टैक्स की वसूली के लिए वित्त, और सरकारी प्रोपैगेंडाओं के लिए आईटी और ब्रॉडकास्ट मंत्रालय चाहिए, बस. 


जो कहते हैं कि मोदीजी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उन्हें मैं यहाँ सुधारना चाहूँगा. मोदीजी देश के सबसे लोकप्रिय नेता नहीं हैं, बल्कि पिछले एक दशक में सबसे बड़ा कल्ट खड़ा करने वाले नेता हैं. और आसान लफ़्ज़ों में कहूँ, तो राजनीति के मंच पर वे शाहरुख़ या आमिर ख़ान नहीं हैं, वे सलमान ख़ान हैं.


यह ज़िम्मेदारी मतदाताओं की है, चाहे वे जिस भी धरे के हों. हिंदू-मुस्लिम के बीच के मनभेदों का  लाउडस्पीकर पर तमाशा बनाने की ज़रूरत नहीं हैं. निजी विचार रखने की स्वतंत्रता सबको है, अपनी ज़िंदगी में किसी भी एक मुस्लिम से भले ही आपका नाता पड़ा हो, लेकिन फिर भी उस समुदाय के प्रति अपने मन में हीन भावना रखने की आज़ादी आपके पास है, लेकिन इस हीन भावना को वीर रस समझने की इस भूल का अंत सिवाय त्रासदी के और कुछ नहीं हो सकता. 

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