GST: देर आए पर क्या दुरुस्त भी?

15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देश की आज़ादी का ऐलान आधी रात को संसद में किया था. ऐसा मौक़ा फिर तो आएगा नहीं, सो बीजेपी ने GST बिल पास करते हुए ही अपना वो शौक पूरा कर लिया. ये कोई ऐतिहासिक महिला आरक्षण विधेयक नहीं था. देवगौड़ा सरकार ने 1996 में महिला आरक्षण विधेयक इंट्रोड्यूस किया था, 2010 में ये राज्य सभा में पास हुआ. लेकिन तीन दशक होने को हैं, ये विधेयक लोक सभा में टेबल तक नहीं हो पाया है. लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की 33% यानी एक तिहाई भागदारी पक्की करने वाला ये विधेयक पास हो पाता तो समझ में आता मौक़ा ऐतिहासिक है

लेकिन GST में क्या ऐतिहासिक है? जिस देश की साठ फ़ीसद से ज़्यादा बड़ी आबादी के पास शौचालय की सुविधा नहीं है, उसे इस बात से क्या मतलब कि टॉयलेट पेपर पर कितना टैक्स लगेगा और दुकान पर वो उन्हें कितने में मिलेगा

हमारा देश भले ही सामाजिक ‘हताशा’ के दौर से गुज़र रहा हो, पर न्यूज़ मीडिया की मानें तो आर्थिक सुधारों की दिशा में ‘एक देश, एक कर’ की नीति के ज़रिए हमने तरक्की की तरफ़ एक और क़दम बढ़ा लिया है. यहां थोड़ा specific हों तो हमारा जीएसटी यूरोपीय देशों की तरह वन टैक्स सिस्टम पर नहीं बल्कि कनाडा की तरह डुअल टैक्स सिस्टम पर आधारित है. सही-सही कहा जाए तो ये ‘वन नेशन, टू टैक्स’ है. मतलब टैक्स दो हिस्सों में बंटा होगा, एक हिस्सा केंद्र जबकि दूसरा राज्य सरकार के पास जाएगा. CGST और SGST – Center and State. अच्छी बात ये है कि अब कारोबारियों को हर क़दम पर अलग-अलग तरह के करों से छुटकारा मिल जाएगा. पर इस टैक्स सिस्टम का देश की जनता के को कितना फ़ायदा मिलेगा?

अमेरिका को छोड़कर लगभग हर संपन्न देश में GST या VAT जैसा युनिफाइड टैक्स सिस्टम है. अब इससे अर्थ जगत की ज़्यादा समझ न रखने वालों को यही लगेगा कि बड़ा अच्छा काम हुआ, बड़ा ज़रूरी काम हुआ. लेकिन आपको साथ ही ये भी जानना चाहिए कि GST वाले किसी भी देश में अधिकतम टैक्स स्लैब 28% नहीं है. बल्कि प्रति व्यक्ति आय में ऊपर के देशों में शुमार डेनमार्क की मिसाल लें, जहां कमाने वाले हर शख्स को आयकर भरना पड़ता है, वहां भी GST की दर 25% है. जबकि भारत में दो लाख या उससे कम की कमाई करने वाले को आयकर नहीं देना पड़ता. भारत एक ग़रीब देश है, ऐसे में टैक्स का स्लैब इतना ज़्यादा कैसे? 

हमारी सरकार बचाव में दलील देती है कि आम इस्तेमाल की ज़रूरी चीज़ों के लिए और आम लोगों की जेब पर ज़्यादा भारी न साबित होने के लिए टैक्स को चार स्लैब में बांटा गया है. 0-5%, 12%, 18% और 28%. पर ये एक झांसा है. महज़ एक दिखावा. क्योंकि 60 फीसदी उत्पाद अधिकतम स्लैब 18 और 28% के ब्रैकेट में डाले गए हैं. केरोसीन और कोयला जो अब चलन से बाहर होने की कगार पर हैं, अगरबत्ती और पतंग, डाक टिकट, 1000 रुपये से कम के कपड़े, और पांच सौ रुपये से कम की चप्पलों, और आश्चर्यजनक रूप से काजू और किशमिश पर 5% का टैक्स होगा. अब आप नोटिस कीजिए तो काजू किशमिश को छोड़कर इन कैटेगरी में जो ज़्यादातर चीज़ें डाली गई हैं, उनकी मौजूदा क़ीमतें वैसे भी बहुत ज़्यादा नहीं हैं. तो बेसिकली जिसे सरकार मौलिक ज़रुरत की चीज़ें बताकर 5% के स्लैब में रखने का दंभ भर रही हैं, वो सरकारी ख़ज़ाने के लिहाज़ से यूँ भी मुनाफ़ेमंद नहीं हैं.

अधिकतम ब्रैकेट यानी 28% वाला स्लैब, जिसे ‘सिन टैक्स’ कहते हैं, मतलब ‘अय्याशी की कीमत’ चुकाना...ये कायदे से सिर्फ लग्ज़री आइटम्स पर लागू होना चाहिए, वो चॉकलेट, चुइंगम, शैम्पू, डियोड्रेंड और पेंट्स जैसी आम इस्तेमाल की चीज़ों पर भी लागू हैं. सरकार बड़ी आसानी से तय कर लेती है कि क्या अय्याशी है और क्या ज़रूरत. अगर इन चीज़ों को सरकार सिन-टैक्स के दायरे में रखती है तो हवाई यात्रा पर सिर्फ़ पांच प्रतिशत का टैक्स कैसे है? कांग्रेसी नेता वीरप्पा मोइली ने इसी बाबत एक बड़ा मजेदार सवाल पूछा कि ‘किटकैट बिस्किट है या चॉकलेट?’, क्योंकि बिस्किट पर 18% का टैक्स है और चाकलेट पर 28%.

GST को साकार करने में सोलह साल लगे. साल 2000 में NDA की ही वाजपेयी सरकार में इसकी कवायद शुरू हुई थी. इससे पहले की वो सरकार GST पास करवा पाती, 2005 में UPA की सरकार बन गई. मनमोहन सिंह वाली सरकार ने हालांकि GST को ठंडे बस्ते में नहीं डाला बल्कि उस पर गंभीरता से काम करना शुरू किया. कई वित्तीय आयोग बने. तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने तो 2010 के वित्तीय बजट में GST लागू करने तक का ऐलान भी कर दिया था. पर राह उतनी आसान नहीं थी. इसके लिए देश के सभी 29 राज्यों को मनाना था, और राज्य सरकारें कर-वसूली की अपनी आज़ादी या यूं कहें अपनी मनमानी खोना नहीं चाहती थीं.

तब बने वित्तीय आयोगों का सुझाव सभी तरह के करों को ख़त्म कर इसे फ्लैट 12% करने का था. इसमें पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स और एलकोहल भी शामिल थे. ज़ाहिर है शुरुआत में राज्य के ख़ज़ाने पर इसका असर पड़ता. पर बदलाव बिना थपेड़े सहे तो नहीं होते! इस थोड़े नुकसान के लिए केंद्र और राज्य सरकारें सोलह साल में तैयार नहीं हुई, लिहाजा वाजपेयी के बाद आई यूपीए सरकार इसे लागू नहीं कर पाई. और दिलचस्प पहलू ये है कि आज भी केंद्र और राज्य सरकारें इस थोड़े नुकसान के लिए तैयार नहीं हैं, जिस वजह से आप चुइंगम को 28% वाले ब्रैकेट में देख रहे हैं. पेट्रोलियम उत्पाद जो मोटे तौर पर एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वाले सामानों की क़ीमत तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं, और शराब जिससे राज्य मोटी कमाई करते हैं, को GST के दायरे से बाहर रखा गया है. अब इसके पीछे दो ही तर्क समझ में आते हैं. एकमोदी सरकार को अगले चुनाव से पहले GST लागू करने का श्रेय लेना ही था, दूसराइरादा इतना मज़बूत था कि राज्य सरकारों की किसी भी शर्त पर राज़ी होने के लिए ये सरकार तैयार थी.

मौजूदा वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन की सलाह अधिकतम दर 20% रखने की थी. उन्होंने कहा था कि GST एक मौक़ा है दूरदर्शी फ़ैसले लेने का, बदकिस्मती से फ़िलहाल GST का फैसला सिर्फ फैसला लेने का दिखावा भर है.

कुछ चीज़ों को लेकर तो कोई तर्क समझ ही नहीं आता. मसलन काजू-किशमिश पर पांच फ़ीसदी टैक्स, लेकिन बादाम और दूसरे dry nuts पर 12%. साबुन और हेयर आयल पर 18% का टैक्स, लेकिन डिटर्जेंट पर 28%. सिनेमा घरों में अगर आप 100 रुपये की सीट वाला टिकट लेंगे तो 18% टैक्स लगेगा, और उसके ऊपर की सीटों पर 28%. अब आज के ज़माने में ऐसे मल्टिप्लेक्स हैं ही कितने जहां सौ रुपये से कम में टिकट मिलते हों…?  

जिस तरह नोटबंदी के फ़ैसले में तैयारियों की कमी साफ़ दिखीं, वैसे ही GST के बाद मध्यमवर्गीय लोगों को महंगाई का पुरज़ोर सामना करना पड़ेगा. तब डिजिटल मनी को अपनाने की मोदी जी की अपील स्मार्टफ़ोन्स रखने वाले युवाओं पर तो हो सकtee है, लेकिन ATM की क़तारों में सिर्फ़ yuvaa खड़े नहीं होते. ठीक उसी तरह भारत में लघु-मध्यम कारोबारियों का एक बड़ा वर्ग आज भी बही-खातों और हाथ से हिसाब करके काम चलाता है, और बिना किसी ट्रायल रन, वर्कशाप और सेमिनार के उनके लिए एकदम से नये सिस्टम में शामिल होना आसान नहीं होगा.


लान्च कार्यक्रम में मोदी जी नेगुड्स ऐंड सर्विसेज़टैक्स कोगुड ऐंड सिंपलटैक्स का नाम दिया. आने वाले वक्त में धीरे-धीरे होने वाले बदलावों के साथ शायद येगुड ऐंड सिंपलबन जाए, लेकिन फ़िलहाल It’s not so good and not so simple for so many who are not part of the structured and well-organised business community.  

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