ये जवाहरलाल नेहरू थे जिन्होंने भारतीय सेना को पाकिस्तान-सा नहीं बनने दिया

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की विरासत पर अक्सर दो चीज़ों को लेकर तोहमत लगाई जाती है. एक है कश्मीर मुद्दा और दूसरा चीन से भारत को मिली करारी शिकस्त. हाल के सालों में भी बार-बार नेहरू की इन दो कथित नाकामियों पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर देकर ये बात स्थापित करने की कोशिश की गई है कि नेहरू ने सेना को वो अहमियत नहीं दी जो दी जानी चाहिए. इंडियन एक्सप्रेस के एक आलेख में एक पूर्व सेनाधिकारी सुशांत सिंह ने सीधे तौर पर इसे सच से कोसों दूर तो बताया ही है, साथ ही उन्होंने कहा है कि इतिहास में नेहरू को ज़्यादा ही उदार बताने के चक्कर में उनकी जो कट्टर युद्धविरोधी छवि पेश की गई है, उससे भी नेहरू को लेकर एक गुमराह करने वाला नज़रिया पैदा हुआ है. सेना के नाम पर राष्ट्रवाद और देशभक्ति की कथित राजनीति करने वालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि ये नेहरू ही थे जिन्होंने सेना पर सिविल अथॉरिटी की मज़बूत पकड़ और नियंत्रण की बुनियाद रखी. वरना आज भारत भी उन देशों की सूची में शुमार होता जहां सिविल प्रशासन बस दिखावा है और सेना के पास असली ताक़त है. नज़ीर के तौर पर हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान. ये नेहरू ही थे जिन्होंने भारत को पाकिस्तान जैसा नहीं बनने दिया. उसी आलेख का अनुदित रूप.



आज़ादी से काफ़ी पहले सितंबर 1946 में जब कांग्रेस की अंतरिम सरकार और मुस्लिम लीग के सदस्यों ने ब्रिटेश गवर्न्मेंट के साथ मिलकर काम करना शुरू किता ताकि भारत और पाकिस्तान के हाथ सत्ता की बागडोर सौंपी जा सके, तब के वायसराय माउंटबेटन की एग्ज़्यूकिटिव काउंसिल के वाइस प्रसिडेंट पद की शपथ दिलाई गई, भारतीय नज़रिए से उस पद को प्रधानमंत्री का नाम भी दिया जा सकता है.

ये पद पाते ही सबसे पहला क़दम जो नेहरू ने उठाया वो था काउंसिल में बतौर रक्षा सदस्य शामिल सेना के कमांडर इन चीफ़ को हटाना, बता दें कि कमांडर इन चीफ़ का दर्जा तब रक्षा मंत्री का हुआ करता था. उसकी जगह नेहरू ने सिविल लीडर सरदार बलदेव सिंह को बतौर रक्षा मंत्री काउंसिल में शामिल किया. और ऐसा नहीं था कि ये फ़ैसला पलक झपकते ले लिया गया था. देश को आज़ादी मिलने से सालों पहले से भारतीय राष्ट्रवादी और कांग्रेस पार्टी इसकी मांग कर रहे थे. सेना को मज़बूती के साथ नागरिक सरकार के अधीन रखने की सिफ़ारिश मोती लाल नेहरू कमिटी ने 1928 में ही की थी. इस सिफ़ारिश में कहा गया था कि काउंसिल में रक्षा सदस्य के तौर पर सिविल नेता होना चाहिए न कि सेनाधिकारी.

जवाहर लाल नेहरू सिर्फ़ बलदेव सिंह को इस काउंसिल में शामिल कर चुप नहीं बैठे. उन्होंने तुरंत तत्कालीन कमांडर इन चीफ़ को भारतीय सेना का राष्ट्रीयकरण करने के लिए फ़ौरी तौर पर कुछ सुझावों पर अमल करने का काम सौंपा. मोतीलाल नेहरू कमिटी ने एक और सिफ़ारिश की थी कि सेना के अधिकारियों की भर्ती इस तरह से की जाए की वहां समाज के हर तबके और वर्ग के लोगों की मौजूदगी हो. तब की सेना ब्रिटिश सरकार के अधीन काम कर चुकी थी और ऐसे में सेना में एक देश के तौर पर भारत के लिए वफ़ादारी, जिस देश को वो अपनी सेवा दे रहे हैं उसकी अहमियत और देश की महत्वाकांक्षाओं की समझ भरनी ज़रूरी था. और नेहरू ने ये काम काउंसिल का वाइस प्रसिडेंट बनते ही शुरू कर दिया. नेहरू की उस अंतरिम सरकार ने फ़ौरी तौर पर सिविल सुरक्षा बलों को अस्तित्व में लाने की प्रक्रिया शुरू की ताकि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सेना के इस्तेमाल से दूरी रखी जा सके. इसकी एक वजह सेना को घरेलू राजनीति से दूर रखना और सेना में राजनीति को न पनपने देना भी था. आज इन सिविल सुरक्षा बलों को आप पुलिस, CISF, CRPF वगैरह के तौर पर देख सकते हैं. नेहरू इस बात से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे कि किस तरह सेना के राजनीतिकरण ने यूरोप और जापान को प्रभावित किया और किस तरह ये प्रभाव World War II की वजह बना.

नेहरू की सोच जितनी सुलझी हुई थी, उनके आदेश उससे भी ज़्यादा सुलझे थे. भारत की आज़ादी की पूर्व संध्या पर भारतीय सेना के ब्रिटिश कमांडर इन चीफ़ General Rob Lockhart ने आदेश दिया कि ध्वजारोहण समारोह से जनता को दूर रखा जाए. उस आदेश को तुरंत बर्ख़ास्त करते हुए नेहरू ने कहा, “सेना द्वारा बनाई गई कोई भी नीति अगर अमल में लाई जानी है तो उसमें भारत सरकार की सहमति अनिवार्य है. अगर किसी शख्स को इससे ऐतराज़ है तो उसके लिए भारतीय सेना में कोई जगह नहीं होगी."

सेना पर नागरिक सरकार की मज़बूत पकड़ के नेहरू अकेले पक्षधर नहीं थे. उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी इसका उतना ही श्रेय जाता है. जूनागढ़ रियासत के राजा ने अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान के अधीन होने का फ़ैसला किया था, और नेहरू ने इससे निपटने के लिए जूनागढ़ में भारतीय सेना की तैनाती के आदेश दिए. जब भारतीय सेना के ब्रिटिश चीफ़्स ने इस आदेश का
विरोध किया तो नेहरू के साथ-साथ पटेल ग़ुस्से से लाल हो गए थे. दोनों ने साफ़ तौर पर कहा कि अगर मिलिटरी कमांडर्स ने उनके आदेश को नहीं माना तो सरकार उन्हें सबक़ सिखाने में कोई कोताही नहीं करेगी. इसी घटना के बाद कैबिनेट की डिफ़ेंस कमिटी का गठन हुआ. राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर सैन्य बलों को क्या करना है, इसके निर्देश इसी कमिटी द्वारा दिए जाने लगे. एक परंपरा जो आज भी क़ायम है.

Yale University के प्रफ़ेसर Steven Wilkinson की मानें तो नेहरू ने साल 1955 में एक ऐसा फ़ैसला किया जो देश में सेना के सर्वोपरि बनने की स्थिति पैदा होने की किसी भी गुंजाइश को ख़त्म कर देता. दरअसल ये वही साल था जब नेहरू ने भारतीय सेना के तीन टुकड़े किए, थल सेना, जल सेना और नौ सेना. इसके साथ ही तीनों सेना के अलग-अलग हेड बनाने का फ़ैसला हुआ और तीनों को
बराबर ताक़त दी गई. और तीनों के ऊपर रखा गया देश के राष्ट्रपति को. अगर तीनों सेना का हेड कोई आला सेनाधिकारी होता तो उसकी पावर इतनी बड़ी हो सकती थी कि प्रजातांत्रिक सरकार के लिए वो ख़तरा बन सके.

1950 के दशक के अंत में जब कृष्णा मेनन रक्षा मंत्री बनाए गए तब सेना पर नेहरू के रवैये की काफ़ी आलोचना हुई. ये वो दौर था जब थल सेना अध्यक्ष केएस थिमैया ने सितंबर 1959 में अपना इस्तीफ़ा दिया. इस्तीफ़े की वजह ये थी कि थिम्मैया ने सीमा पर चीन की बढ़ती दख़ल के बीच नेहरू से पाकिस्तानी जनरल अयूब ख़ान के उस प्रस्ताव को मंज़ूर करने की मांग की थी जिसके तहत दोनों
देशों भारत और पाकिस्तान के बीच संयुक्त रक्षा इंतज़ामात किए जाते. दोनों नेहरू और मेनन इस आइडिया के ख़िलाफ़ थे. बात न बनने पर थिम्मैया ने इस्तीफ़ा दे दिया. नेहरू ने उन्हें मनाने की कोशिश ज़रूर की लेकिन ये साफ़ कर दिया कि उनके प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं मिलेगी. तब सेना ने नागरिक सरकार द्वारा उसकी कार्रवाइयों में दख़ल देने का आरोप लगाया और नेहरू ने भी साफ़ लहज़े में कहा, "Civil authority is and must remain supreme."

1962 में चीन से मिली करारी हार के बाद नेहरू की आलोचनाओं ने इतनी तेज़ी पकड़ ली और भारत की हार का ठीकरा सरकार पर इस क़दर फोड़ा गया कि सेना को सरकार पर वरीयता मिलने लगी. कई नेता सेना की उस मांग के आगे घुटने टेकते नज़र आए कि उन्हें सेना के संचालन से दूरी बनाए रखनी चाहिए. नौबत यहां तक आ गई कि जिस नेहरू ने सेना को नगरिक सरकार के नियंत्रण में
रखने की बुनियाद रखी उसी सेना के जनरल जयंतो नाथ चौधरी और उनके कमांडर सैम मानिकशॉ ने North Eastern Frontier Agency में सेना को मूव किए जाने के नेहरू के आदेश को दरकिनार कर दिया.
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नेहरू के आख़िरी लम्हों में उन्हें भले ही सेना के कोप का शिकार बनना पड़ा हो, लेकिन जिस तरह के सिस्टम्स, नियम और संगठनात्मक संरचनाएं नेहरू ने अपनी सरकार रहते बना डाली थीं, उससे ये तय हो गया था कि भारत में सेना कभी नागरिक सरकार का तख़्तापलट करना तो दूर उसके समानांतर में भी खड़ी नहीं हो सकती. आज सेना की स्तुति गान कर और उसकी बहादुरी के नाम पर अपनी
रोटियां सेकने वाली सियासी पार्टियां अगर ऐसा कर भी पा रही हैं तो इसलिए कि वो कम से कम अपनी ही सेना से insecure नहीं है और पूरी तरह महफ़ूज़ है. जितनी भी post-colonial societies हैं उसमें सेना को मैनेज करने में भारत का नाम सबसे ऊपर है क्योंकि उस दौरान ऐसा कर भारत ने अपवाद पैदा किया था.

ये तय करना मैं आप पर छोड़ता हूं कि नेहरू द्वारा सेना की ताक़त को नागरिक सरकार के अधीन करने के लिए जो भी क़दम उठाए गए वो एक देश के तौर पर भारत को मज़बूत करता है या कमज़ोर. युद्ध के दो ही नतीजे हो सकते हैं हार या जीत. लेकिन नीतियां भविष्य तय करती हैं. कम से कम सेना के नज़रिए से देखें तो जो ठहराव इस देश में है, उसके लिए नेहरू को वो श्रेय तो दिया जी जाना
चाहिए जिसके वो हक़दार हैं.

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