आख़िर क्यों फ़र्स्ट ल्युटिनेंट शेय हैवर और कैप्टन ग्रीस्ट जैसी महिला सैनिक हमारे पास भारत में नहीं हैं?


अमेरिकी थल सेना की फ़र्स्ट ल्युटिनेंट शेय हैवर और कैप्टन क्रिस्टन ग्रीस्ट भले ही अपने करियर में शीर्ष पर पहुँच सकी हों, पर उन्होंने यक़ीनन पहल तो कर दी है. बीते शुक्रवार, वे 62 दिनों तक चलने वाले और बेहद मुश्किल माने जाने वाले रेंजर ट्रेनिंग कोर्स में कामयाब होने वाली पहली महिला सैनिक बनीं और उन्हें अपनी वर्दी पर लगाने के लिए वह प्रतिष्ठित रेंजर तमगा मिला जिसे पाना पुरुष सैनिकों के लिए भी आसान नहीं है. हर साल तक़रीबन 4,000 सैनिक रेंजर कोर्स का हिस्सा बनते हैं, जिनमें से महज़ 1600 इसे पूरा करने में कामयाब होते हैं.

सेना के अपने पुरुष साथियों की तरह ही, जिन्हें इस प्रशिक्षण के लिए ख़ास तरह का हेयरकट (जिसे हमारे यहाँकटोरा कटभी कहते हैं) लेना होता है, इन दोनों महिला अफ़सरों को भी अपने बाल लगभग मुंडवाने पड़े. लेकिन इसके बावजूद वे अमेरिकी सेना के स्पेशल ऑपरेशन फ़ोर्स यानी प्रतिष्ठित 75वीं रेंजर रेजिमेंट का हिस्सा नहीं बन सकतीं क्योंकि इसके दरवाज़े महिलाओं के लिए बंद हैं.

इन दोनों महिलाओं की रेंजर कोर्स में भागीदारी अमेरिकी सेना की उस पहल का नतीजा था जिसके तहत यह आंका जाना है कि सेना में महिलाओं की भूमिका को बेहतर बनाने के लिए उन्हें क्या-क्या ज़िम्मेदारियाँ सौंपी जा सकती हैं. तत्कालीन अमेरिकी रक्षा सचिव लिओन पैनेटा ने 2013 में यह घोषणा की थी कि अगर सैन्य संस्थाएँ ऐसे डेटा और साक्ष्य सामने नहीं लातीं जो महिलाओं को सेना के किसी ख़ास पद या पदों के लिए सही साबित नहीं करते तो 2016 तक सेना में महिला सैनिकों के लिए युद्ध में हिस्सा लेने का रास्ता खोला जा सकता है. अमेरिकी जल सेना ने पहले ही यह घोषणा कर दी है कि उनके स्पेशल ऑपरेशन फ़ोर्स सील्स में महिलाओं की भर्ती पर कोई पाबंदी नहीं होगी.

इतना तो साफ़ है कि अमेरिकी सेना में महिलाओं पर चल रही बहस सही दिशा में आगे बढ़ रही है. यदि अमेरिका वाक़ई महिलाओं को युद्ध से जुड़ी गतिविधियों में शामिल होने देता है, जो मुमकिन भी दिख रहा है, तो ये कनाडा, फ़्रांस, जर्मनी और इज़राइल समेत उन 15 मुल्कों की फ़ेहरिस्त का हिस्सा बन जाएगा जहाँ की सेना में महिलाओं के लिए आगे बढ़ने के रास्ते खोल दिए गए हैं.

भारत में क्या स्थिति है?

इस बार टीवी पर गणतंत्र दिवस की झाँकियों में राजपथ पर मार्च करने वाली महिलाओं की एक पूरी सैन्य-टुकड़ी देखना अच्छा तो लगता है, पर भारतीय सेना में महिलाओं की असली तस्वीर सामने नहीं लाता. सेना की नर्सिंग इकाइयों में महिलाएँ बतौर सैनिक 1927 से और बतौर मेडिकल अधिकारी 1943 से काम कर रही हैं, युद्ध के इतर दूसरी भूमिकाओं में उनकी हिस्सेदारी 1992 में जाकर शुरू हुई है. ये महिलाएँ भारतीय सेना में सिर्फ़ बतौर अफ़सर शामिल हो सकती हैं, और वो भी सिर्फ़ ख़ास भूमिकाओं के साथ. हमारी सेना में मौजूद ज़्यादातर महिलाएँ शॉर्ट-सर्विस कमिशन (दस साल कार्यकाल जिसे आगे 14 सालों तक बढ़ाया जा सकता है) के तहत ऑफ़िसर होती हैं.

सरकार ने हाल ही में थल, जल और वायु सेना तीनों की लीगल और शैक्षणिक इकाइयों में, वायु सेना के अकाउंट्स विभाग में और जल सेना के एयर ट्रैफ़िक कंट्रोलर के बतौर महिलाओं को स्थायी कमीशन देने पर स्वीकृति दे दी है. लेकिन भेदभाव अब भी बरक़रार है. सेना में उनके साथ चयनित और प्रशिक्षित हुए पुरुष अधिकारियों की तरह महिला अधिकारियों को स्थायी कमीशन दिया जाए, इस मामले पर फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है.

काबुल के भारतीय दूतावास पर फ़रवरी 2010 में हुए आतंकी हमलों में कम से कम 19 ज़िंदगियाँ बचाने के लिए सेना मेडल पाने वाली भारत की पहली महिला सैन्य अधिकारी लेफ़्टिनेंट कर्नल मिताली मधुमिता ने कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है क्योंकि उन्हें शैक्षणिक इकाई में अपने पुरुष साथियों की तरह स्थायी कमीशन पाने का विकल्प नहीं दिया जा रहा.

चाहे जो भी हो, युद्ध से जुड़ी गतिविधियों में महिलाओं को शामिल करने का प्रस्ताव मई में रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर द्वारा पहले ही ठुकराया जा चुका है. पार्रिकर ने इसकी वही वजह दोहराई जो तीनों सेनाध्यक्षों ने महिला सशक्तिकरण पर संसदीय समिति को बताई थी: कि अगर कोई महिला सैनिक दुश्मन की गिरफ़्त में आती है तो पूरी सैन्य टुकड़ी का मनोबल गिर जाएगा. इस तर्क में पितृसत्ता की बू मिलती है. किसी महिला सैनिक का दुश्मनों के चंगुल में जाना उस क्रूर यातना, प्रताड़ना और हत्या से बुरा कैसे हो सकता है जो करगिल के दौरान कैप्टन सौरभ कालिया और उनके सैन्य-दल के साथ हुआ था?

अगर यह कोई समस्या है भी तो आगे बढ़ने का रास्ता यही है कि लोगों में, पुरुष हो या स्त्री, दोनों की गिरफ़्तारी के प्रति बराबर संवेदनशीलता लाई जाए – न कि एक को मर्यादा और इज़्ज़त से जोड़कर बने-बनाए पूर्वग्रह को और मज़बूत किया जाए. सेना को ख़ास तौर पर संवेदनशील करने की ज़रूरत है कि युद्ध-गतिविधियों से जुड़ी भूमिकाएँ निभाने के लिए उनके लिंग के बजाय केवल उनकी योग्यता को आधार बनाया जाए. इस मामले में कनाडा की सेना से जुड़ी एक घटना मिसाल बनाए जाने लायक है. मई 2006 में, कैप्टन निकोला गोडार्ड कनाडा के इतिहास की पहली महिला सैनिक थीं जो तालिबान के खिलाफ़ चल रही जंग में फ़्रंटलाइन पर लड़ते हुए मारी गईं. और उनकी शहादत पर कनाडा की प्रतिक्रिया लिंग-आधारित न होकर यह थी कि उन्होंने एक ऐसी योद्धा को खो दिया जो बेहद सक्षम और समर्पित थी.

बड़ा पेंच यह है कि सैन्य बलों को लिंग-निरपेक्ष बनाने का फ़ैसला आम लोगों के मुकाबले खुद भारतीय सेना के भीतर ही ज़्यादा विवादित होगा. सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की दलील होती है कि युद्ध से जुड़ी भूमिकाओं में महिलाओं का होना लड़ाकू दलों की एकजुटता को खंडित करेगा और जवानों के स्वास्थ्य और उनकी मनोदशा पर इसका बुरा असर पड़ेगा. एक दलील यह भी दी जाती है कि महिलाओं की शारीरिक क्षमताएँ युद्ध में शामिल होने के लिए पर्याप्त नहीं होतीं. सेना के अंदर चल रही बहस पर यह कहकर पूर्णविराम लगा दिया जाता है कि महिलाओं को लेकर मौजूद हमारी सामाजिक मान्यताएँ और हमारे फ़ौजियों की पृष्ठभूमि ऐसी परिस्थिति को और जटिल ही बनाती है.

ये चिंताएँ वाजिब होंगी लेकिन अनुभवों को आधार माना जाए तो किसी फ़ौजी टुकड़ी के लिए सबसे अहम पहलू उसकी टीम भावना को बनाए रख पाना है; जहाँ पुरुष हों या स्त्री सबको बराबरी से देखा जाए, यही सफल नेतृत्व होगा. और यूं भी आज के युद्धों में कोई नियत फ़्रंटलाइन नहीं होतीं, तो भले ही आप सेना में महिलाओं को युद्ध से जुड़ी गतिविधियों में शामिल न करें, लेकिन उन्हें युद्ध से ही बाहर रख पाना तय नहीं किया जा सकता.

किसी भी मुल्क की सेना के लिए स्टेटस-क्वो यानी पुरुषप्रधानता से बाहर निकलना आसान नहीं रहा है. यहाँ तक कि कनाडा और इज़राइल में औरतों पर लगा प्रवेश-निषेध तब ख़त्म हुआ जब सेना पर राजनैतिक और क़ानूनी दबाव बनाया गया. यहाँ की सेनाओं को कई चीज़ों में भारी बदलाव करने पड़े. मुमकिन है कि भारत भी उसी राह से होकर गुज़रे. आख़िर में एक ही चीज़ की अहमियत देखी जानी चाहिए: अगर एक सिपाही, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, किसी नियत कार्य के सेना द्वारा तय किए गए मानकों पर खरा उतरता है, उसे वह ज़िम्मेदारी निभाने का पूरा हक़ है. जैसा कि शोध बताते हैं, यह नेतृत्व पर निर्भर है कि उनकी टुकड़ी कितनी कारगर है – न कि महिलाओं की मौजूदगी या नामौजूदगी. 

इंडियन एक्सप्रेस से साभार II मूल रिपोर्ट यहाँ पर

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

The youngest, the oldest, and the most controversial advocate of Indian history

बीसीसीआई को याचक से शासक बनाने वाले जगमोहन डालमिया

भाषा को एक ऐसा दरिया होने की ज़रूरत है, जो दूसरी भाषाओं को भी ख़ुद में समेट सके