Jai Bheem का विरोध हमारे समाज के वैचारिक पतन का द्योतक है
आख़िर जिस समाज की नींव गाँधी, आंबेडकर, नेहरू और पटेल जैसे अनेक दूरद्रष्टाओं ने रखी, वह समाज वैचारिक पतन की ढलान पर इतना कैसे गिरता चला गया कि उसे एक कहानी कचोटने लग गई।
क्या आप यह नहीं मानते कि पुलिस को केस बंद करने के असंवेदनशील और अन्यायपूर्ण तरीकों के बजाय वाकई में अपनी ड्यूटी करके उसके सही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए? क्या आप यह नहीं मानते कि सरकार और प्रशासन की आँखों में सबका दर्जा बराबर होना चाहिए? क्या आप यह नहीं मानते कि चाहे आपका वोट किसी के पक्ष में पड़ा हो या विपक्ष में, यह पहलू आपको इंसाफ़ मिलने की राह में रोड़ा साबित नहीं होना चाहिए?
कोई नई कहानी तो नहीं है यह! वही कहानी है जो हम देखते आए हैं।एक तबका है जो बदक़िस्मत और मज़लूम है। एक तबका है जो ताक़तवर और ज़ालिम है। मज़लूमों की सुनने वाला कोई नहीं है, और ऐसे में से उस तबके को ऐसे वकील का साथ मिलता है, जिसके लिए यह पेशा पैसे कमाने का ज़रिया भर नहीं है, बल्कि इंसाफ़ दिलाने का रास्ता भी है। मज़लूमों और ज़ालिमों के बीच की यह लड़ाई शोषण, दमन, यातनाओं और वेदनाओं से भरी है और बाबा साहेब का बनाया संविधान, हमारा क़ानून इस लड़ाई में अंततः दमित तबके के साथ खड़ा होता है। उसे न्याय दिलाता है। इस कहानी की तो सराहना होनी चाहिए न?
चलिए आपही की कल्पना के हिसाब से एक मिनट के लिए यह मान लेते हैं कि रक्षक अब भक्षकों वाला काम नहीं करते हैं, यह भी मान लेते हैं कि सवर्ण और दलित के बीच का भेद मिट चुका है। अगर आप ऐसा मानते भी हैं तब भी इस कहानी से ऐतराज़ की आपकी वजह हमारे पल्ले नहीं पड़ती है। कुल मिलाकर कहानी का लब्बोलुआब तो यही है न कि किसी के साथ नाइंसाफ़ी नहीं होनी चाहिए। किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए।
आख़िर इस कहानी में ऐसा क्या है, जिससे कुछ लोगों की भृकुटियाँ तन जानी चाहिए? क्या हमारी अक़्ल घास चरने गई है? एक तरफ़ हम ख़ुद को जातिविरोधी मानते हैं, दावा करते हैं कि हमारे समाज में बराबरी है, कहते हैं कि भेदभाव तो यहाँ है ही नहीं, वहीं दूसरी तरफ़ उसी जातिवाद की मुख़ालफ़त करने वाली, हमारे कानून को सर्वोच्च साबित करने वाली, अन्याय पर न्याय की जीत के दुःखद और दुरूह सफ़र पर ले जाने वाली कहानी का विरोध करते हैं। अजीब विडंबना है!
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