किसान आंदोलन और CAA विरोधी आंदोलन का फ़र्क़
बात ये नहीं है कि तीनों क़ानून सही थे या ग़लत. कृषि का ककहरा तक नसमझने वाले एक इंसान के तौर पर यह राय बना पाना मेरे लिए मुश्किल था. मेरे लिए मामला बस इतना था कि सरकार कुछ क़ानून लेकर आई है और उनसे प्रभावित समुदाय का एक तबका उनका विरोध कर रहा है.
विरोध तो अधिकार है. हमारे देश में एक नया कल्चर शुरू हो गया है. अब विरोध के ख़िलाफ़ भी विरोध होने शुरू हो गए हैं. आपको याद होगा कि CAA प्रोटेस्ट के ख़िलाफ़ कैसे जगह-जगह विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए थे.
विरोध के बदले विरोध सिर्फ़ एक ही संदेश देता है कि जनता बँटी हुई है. जनता का बँटा होना शासकों-प्रशासकों के लिए ऐतिहासिक रूप से सुविधाजनक रहा है, लेकिन ऐसे विभाजनों के साथ एक मज़बूत लोकतंत्र की कल्पना कर पाना मुश्किल है.
किसी क़ानून से समुदाय विशेष के लोगों को अगर कोई पीड़ा हुई है या होती है, तो क्या वे उसका विरोध भी नहीं कर सकते? हाँ अगर विरोध में कोई क़ानूनी पहलू गड़बड़ हो तो उसे दुरुस्त करवाने का इंतज़ाम सरकार को करना चाहिए. लेकिन विरोध के बदले एक नए विरोध का खड़ा हो जाना, सिर्फ़ और सिर्फ़ Bullying और Harassment है.
अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के साथ जो Bullying और Harassment हुआ, वही टैक्टिस किसानों की बहुसंख्यक आबादी के साथ नहीं चली जा सकती थी. इसकी कोशिशें बहुत हुईं पर नाकाम रहीं.
किसान आंदोलन को दबाने के लिए “हिन्दू ख़तरे में है” का फ़ॉर्मूला नहीं चल सकता था. यह एक पेशे का आंदोलन था और पेशों का कोई मज़हब नहीं होता.
आप ध्यान दें तो पाएँगे कि जहाँ CAA प्रोटेस्ट को शुरू में बिना हंगामे कुछ दिनों तक होने दिया गया वहीं किसान आंदोलन को शुरू होनेसे पहले ही दबा देने की भरपूर कोशिश की गई. क्योंकि शायद सरकार जानती थी कि इस विरोध के विरोध में उग्र होने वाली कोई जमात नहीं मिलेगी, इसलिए इसे होने ही न दिया जाए.
साम, दाम, दंड, भेद…सारी ज़ोर-आज़माइशें हुईं, लेकिन अगर सरकार पीछे जाने पर मजबूर हुई तो उसकी वजह सिर्फ़ और सिर्फ़ किसानों की एकजुटता और उनके ख़िलाफ़ किसी विरोध का न पनप पाना था.
एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं. घर के मुखिया ने अपने बेटे से कहा कि बारहवीं पास करने के बाद सरकारी परीक्षाओं की तैयारी शुरू कर दो. सिर्फ़ सरकारी नौकरी ही एक बेहतर भविष्य दे सकता है. ये था पिता का अध्यादेश. बेटे ने कहा, सरकारी नौकरी नहीं करनी है, भेड़चाल नहीं चलनी है. कुछ करना है लेकिन अपनी योग्यता और प्रतिभा के अनुसार. क्या पिता के अध्यादेश का पुत्र द्वारा विरोध किया जाना ग़लत माना जाएगा? बहुत से पुत्र पिता का अध्यादेश मानकर उसी राह पर चल पड़ते हैं और कामयाब भी होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब तो क़तई नहीं है कि बस सुंदर भविष्य का वही एक मात्र विकल्प है.
विरोध न करने देने का मतलब होता है, लोगों को अपना दुःख, अपनी पीड़ा, अपना संताप या अपनी इच्छा ज़ाहिर करने से रोकना.
विरोध के बदले विरोध का मतलब होता है पीड़ितों को यह बताना कि उनकी पीड़ा का कोई महत्व नहीं है, इसलिए वे अपनी पीड़ा चुपचाप सहें. जग-हँसाई न करवाएँ.
एक क़िस्सा सुना था कि गाय-सी सुशील बहू की सब तारीफ़ें करते थे, लेकिन उसका पति दारूबाज़ था और हर दिन उसके साथ हिंसा करता था. जब तक वो चुपचाप सहती रही, सास, ससुर और पूरे मोहल्ले के लिए बड़ी चरित्रवान कहलाई, लेकिन एक दिन जब उसने हिंसा से आजिज़ आकर हिंसा पर चुप्पी साधे सास-ससुर को खरी-खोटी सुनाई और अपने पति पर पलटवार किया, और उसका ये हो-हल्ला पूरे मोहल्ले को सुनाई दिया तो सेकंड भर में वह बहू चरित्रवान से चरित्रहीन हो गई.
विरोध पर तुरंत जजमेंट देने को तैयार बैठी बिकी हुई मीडिया के इस दौर में जनता को संवेदनशील होना पड़ेगा, धर्म-पंथ और विचारधाराओं से उठकर एकजुट होना पड़ेगा. वरना सरकारें हमेशा हमारे मनभेदों और मतभेदों का फ़ायदा उठाएँगी. मत भूलिए हम सरकार के नहीं, सरकार हमारी है. हमें उसका पक्ष नहीं लेना. उसकी वकालत नहीं करनी. बल्कि उससे जवाब लेना है.
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