अधिकारी बनाकर नहीं सिपाही बनाकर ही मुमकिन है सेना में महिला-सशक्तिकरण

हाई स्कूल से लेकर कॉलेज तक अपने पांच साल मैंने एनसीसी में बिताए. यह पहला ऐसा मंच था जहां मुझे लड़कियों के साथ प्रशिक्षण पाने का मौक़ा मिला. जहाँ यह समझने का मौक़ा मिला कि लड़कियों को नाज़ुक, कमज़ोर और अबला मानने वाली धारणाएँ महज़ पूर्वग्रह है. जहाँ लड़कियों से भी उतनी ही कड़ी मेहनत करवाई जाती थी जितना लड़कों से और उन्हें भी सज़ा मिलने पर भारी राइफल उठाकर लड़कों की ही तरह मैदान के चक्कर लगाने पड़ते थे. मैंने खुद भी पैरासेलिंग और पैराग्लाइडिंग की है और उन्हें भी उसी दक्षता के साथ यह सब करते हुए देखा है. 

एनसीसी यानी नैशनल कैडेट कोर्प्स का गठन स्कूलों और कॉलेजों में भारतीय सेना में शामिल होने की तमन्ना रखने वाले विद्यार्थियों के लिए और आपातकालीन स्थितियों में सेना से जुड़े मानव-संसाधन संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किया गया था और सेना की ही तर्ज़ पर इसमें भी थल, जल और वायु तीनों इकाइयाँ होती हैं.

इस प्रशिक्षण के दौरान वे भी हमारे साथ फ़ायरिंग करती थीं, बाधा-दौड़ में भाग लेती थीं, सुबह चार बजे लाइन-अप होकर दोपहर के दो बजे तक एक उंगली पर सेल्फ लोडिंग राइफल (एसएलआर) संभाले परेड करती थीं जो फिर शाम चार बजे से शुरू होकर सात बजे तक चलता था. और या तो उनमें से कइयों का प्रदर्शन उतना ही लचर होता था जितना हममें से कइयों का या फिर उतना ही बेमिसाल होता था जितना हममें से कुछ का. 

मेरा चयन जिस वर्ष 2003 में गणतंत्र दिवस परेड के लिए हुआ था उसकी तैयारी पूरे आठ-नौ महीने चला करती थी और तब जो जिसे हमारे परेड का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी मिली थी वह एक लड़की ही थी. बिहार और झारखंड डायरेक्टरेट के लिए यह पहला मौक़ा था जब उसके एनसीसी दल की अगुआई एक लड़की को मिली थी. 

भारतीय सेना में भी महिलाओं ने अपनी क्षमताओं का लोहा कई बार मनवाया है, प्रशिक्षण के दौरान भी और प्रशिक्षण के बाद भी. बावजूद इसके सेना की तीनों इकाइयों में उनको लेकर होने वाले भेदभाव थमने के संकेत नहीं दिख रहे, उल्टा यह भेदभाव और मुखर होता जा रहा है.

वजह क्या है? अति विशिष्ट सेवा मेडल और विशिष्ट सेवा मेडल से सुशोभित मेजर जेनरल मृणाल सुमन जैसे पितृसत्तात्मक सेनाधिकारियों की भरमार. कुछ महीने पहले लिखे अपने एक आलेख में सुमन कहते हैं, "सेना कोई रोज़गार योजना नहीं है जिसके लिए समाज के हर वर्ग में नौकरी का समान अनुपात में वितरण करना ज़रूरी हो. चूंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है इसलिए चाहे महिला हो या पुरुष, जब तक उनमें युद्ध की क्षमता न हो तब तक उन्हें सेना से जुड़ी युद्ध-भूमिकाओं में शामिल नहीं किया जा सकता."

अव्वल तो इस क्षमता का निर्णय सेना में भर्ती के वक्त कर लिया जाता है और उसके बाद कड़े प्रशिक्षण के ज़रिए उस क्षमता को निखारा जाता है. तो क्या मृणाल यह कह रहे हैं कि प्रशिक्षण के बाद यह भान होता है कि स्त्रियाँ युद्ध-भूमिकाओं के लिए अक्षम साबित होती हैं? उनकी बातें खुद ही विरोधाभासी हैं चूंकि सेना की तीनों ही इकाइयों में यह पहले से ही तय कर लिया गया है कि स्त्रियों को युद्ध भूमिका में शामिल किया ही नहीं जाएगा.

भारत की महिला सैनिकों ने एक से अधिक बार माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई की है. शियाचीन ग्लेशियर की सबसे ऊंची चोटी पर बीस से अधिक महिला सैन्य अधिकारियों के एक दल ने 15 अगस्त 2009 को चढ़ाई करने में कामयाबी हासिल की थी. अब अगर इसे विषम परिस्थितयों में प्रदर्शन करना नहीं कहते तो फिर जानें किसे कहते होंगे! 

वर्ष 2010 में ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी के सेना-प्रशिक्षुओं को दिया जाने वाला सबसे प्रतिष्ठित सम्मान 'स्वोर्ड ऑफ़ ओनर' दिव्या अजित को हासिल हुआ था और इसके लिए उसने अपने 244 समकक्ष पुरुष और स्त्री बेस्ट कैडेट्स को पीछे छोड़ा था.

काबुल के भारतीय दूतावास पर फ़रवरी 2010 में हुए आतंकी हमलों में कम से कम 19 ज़िंदगियाँ बचाने के लिए महिला सैन्य अधिकारी लेफ़्टिनेंट कर्नल मिताली मधुमिता सेना मेडल से सुशोभित किया गया था.

आप कह सकते हैं कि ये उदाहरण मुट्ठी भर हैं, लेकिन फिर आपको इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि भारतीय सेना में महिलाओं की मौजूदगी पांच प्रतिशत से भी कम है.

वजह साफ़ है, महिलाओं की भर्ती सिर्फ और सिर्फ मेडिकल, लीगल, शैक्षणिक, इंजीनियरिंग, आर्डिनेंस, इंटेलिजेंस, सिग्नल्स और एयर ट्रैफिक कंट्रोल से जुड़े विभागों में भी महज़ अधिकारियों के तौर पर होती है जिसके लिए कम से कम अहर्ता स्नातक है. 

सेना में सिपाहियों के रैंक पर महिलाओं की भर्ती न होना पुरुष और स्त्री के बीच की खाई को और गहरा ही करता है. 1992 में महिला सैन्य अधिकारियों की पहली भर्ती हुई थी और उस बैच की गोल्ड मेडलिस्ट अंजना भादुरिया एक इंटरव्यू में इस सवाल पर कि महिलाओं को भारतीय सेना की युद्ध से जुड़ी भूमिकाओं में अब तक क्यों शामिल नहीं किया गया है, वे कहती हैं, "अगर महिलाएं युद्ध में आएंगी तो चूंकि वे अफसर के पद पर ही भर्ती होती हैं, ज़ाहिर है उन्हें अगुआई करनी होगी और मुझे नहीं लगता मर्दों से भरी जवानों की टुकड़ी एक महिला के नेतृत्व को गरिमा के साथ और सहजता से स्वीकार करने के लिए तैयार हो पाई है. ये तभी संभव है जब सैनिकों की उन टुकड़ियों में महिलाएँ भी शुमार हों."

जब तक साथ काम करने का मौक़ा नहीं मिलेगा तब तक स्वीकार्यता संभव नहीं है. मौजूदगी एक बहुत बड़ी ज़रुरत है बशर्ते सरकार और सेना का इरादा नेक हो. पूर्वग्रह के बजाय महिलाओं को एक ईमानदार मौक़ा देने की चाहत हो. 

लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा है नहीं. हमारे रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर द्वारा महिला सशक्तिकरण पर बनाई गयी संसदीय समिति को दिया गया तर्क इस दुर्भाग्य की पुष्टि भी करता है, "अगर कोई महिला सैनिक दुश्मन की गिरफ़्त में आती है तो पूरी सैन्य टुकड़ी का मनोबल गिर जाएगा." 

एक माह पूर्व इंडियन एक्सप्रेस के आलेख में एक पूर्व सैन्य अधिकारी सुशांत सिंह लिखते हैं कि रक्षा मंत्री के इस तर्क में पितृसत्ता की बू मिलती है. किसी महिला सैनिक का दुश्मनों के चंगुल में आ जाना उस क्रूर यातना, प्रताड़ना और हत्या से बुरा कैसे हो सकता है जो करगिल के दौरान कैप्टन सौरभ कालिया और उनके सैन्य-दल के साथ हुआ था?

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