बीसीसीआई को याचक से शासक बनाने वाले जगमोहन डालमिया

न सिर्फ़ दुनिया भर में बल्कि खुद अपने देश में भी क्रिकेट को सिरमौर बनाने के लिए जगमोहन डालमिया याद रखे जाएंगे.


एक वक्त था जब भारत में ही क्रिकेट मैच दिखाने के लिए बीसीसीआई प्रसार भारती को पैसे देता था. 1993 तक. तब भारत एक बार विश्वकप जीत चुका था. क्रिकेट भारतीयों के ज़ेहन में रचने-बसने लगा था और तभी सचिन के साथ-साथ कुछ नये युवा खिलाड़ी टीम में आए जिन्होंने अपने शानदार खेल की बदौलत देश और दुनिया में फतह के झंडे गाड़े. डालमिया ने लोगों की नब्ज पढ़ी थी. क्रिकेट के चढ़ते बुखार को समझा था. और उन्होंने प्रसार भारती को पैसे देने की बजाय उल्टे प्रसारण अधिकार बेचने की घोषणा की. इस एक फैसले ने बीसीसीआई को करोड़ों-अरबों रुपये दिए. दुनिया भर के टीवी चैनल देश की बढ़ती अर्थ-शक्ति को देख-समझ रहे थे जिसे भुनाने में भारतीय क्रिकेट बोर्ड कामयाब रहा.

कभी क्रिकेट की एक असरहीन टीम, जिसका लक्ष्य बस हार टालने की कोशिश हुआ करता थी, किसी तुक्के से याचक से शासक नहीं बनी. जगमोहन डालमिया जब 1997 में आईसीसी के अध्यक्ष बने थे तब महज 16000 पौंड की पूंजी वाली इस संस्था को 16 मिलियन पौंड तक पहुंचाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. बीसीसीआई ने सिर्फ़ खुद को ही खड़ा नहीं किया बल्कि अपनी मजबूती के साथ-साथ आईसीसी को भी उसके पैरों पर खड़ा करने में सबसे अहम भूमिका निभाई.

जो आज बीसीसीआई को कोसते हैं, उन्हें वह वक्त भी याद करना चाहिए जब विश्व क्रिकेट में इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका की ठसक थी और आईसीसी के नियम-कानून यही देश तय करते थे. आईसीसी के गठन (1909) के 84 वर्ष बाद 1993 में (तब तक इसका विस्तार बहुत सारे देशों में हो चुका था तो स्पष्ट रूप से ऊपर के इन तीनों मुल्कों की चलती खत्म होने लगी थी) इन देशों का वीटो पावर खत्म किया गया था. सवाल यह है कि उनके विश्व क्रिकेट पर 84 वर्ष के इस राज में एक संस्था के रूप में आईसीसी कितनी मज़बूत हुई? कितनी संपन्न हुई? आईसीसी का कायापलट ही डालमिया के आने के बाद शुरू हुआ.

अब बीसीसीआई की भूमिका आईसीसी में वही है जो संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की. यूएन अमेरिका को ईराक में बम गिराते देखकर जैसे मूकदर्शक बना रहता है वैसे ही आईसीसी बीसीसीआई के हस्तक्षेपों पर मुहर लगाता रहता है. फिर चाहे मामला स्टीव बकनर को अम्पायरिंग से हटा दिए जाने का हो, हरभजन सिंहद्वारा एंड्रयू सायमंड्स को गाली देने का हो, रिव्यू सिस्टम पर टांग अड़ाने का हो या आईसीएल में अपने तो अपने, दूसरे देशों के खिलाड़ियों को जाने से रुकवा देना हो. 

इसी शक्ति की वजह से जब भारत ऑस्ट्रेलिया का दौरा बीच में रद्द करने की धमकी देता है तो वह गिड़गिड़ाने लगता है और यही शक्ति है जो 26/11 जैसी भयावह घटना के बावजूद इंगलैंड को दोबारा अपना दौरा बहाल करने पर मजबूर करती है. बीसीसीआई पूरी दुनिया की सबसे ताकतवर क्रिकेट बोर्ड है जिसकी बात या तो मन से या मन मारकर आखिरकार सभी को सुननी पड़ती है. आप इसे बीसीसीआई की मनमानी कह सकते हैं, तानाशाही भी कह सकते हैं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि भारतीय क्रिकेट ने मनमानी का यह हक कमाया है. 

कभी क्रिकेट पर इंगलैंड का राज इसलिए था कि वे इस खेल के जन्मदाता थे, वेस्टइंडीज का इसलिए रहा कि वे विवियन रिचर्ड्स और माइकल होल्डिंग जैसे खिलाड़ियों से लैस थे, ऑस्ट्रेलिया का राज भी क्रिकेट पर उनके शानदार खेल की वजह से ही रहा. भारतीय क्रिकेट का राज इसलिए है कि उसने इसे अकूत दौलत जुटाकर दिया, क्रिकेट के बाजार को बारीकी से समझा, गजब की प्रशासन क्षमता दिखाई और अब तो वह दुनिया की बेहतरीन टीमों में से एक भी है. भारतीय क्रिकेट पिछले आकाओं की तरह किसी एक वजह से राजा नहीं है.

बीसीसीआई की वाजिब और गैरवाजिब आलोचनाएं भी खूब होती है पर ये वो आलोचक हैं जिनके बोलने से न तो क्रिकेट की दिशा तय होने वाली है न ही दशा. और जिनके पास इस खेल का भविष्य तय करने की क्षमता हो सकती थी वे आईपीएल की वजह से इतने करोड़ रुपये कमाएंगे या कमा चुके हैं कि उनकी बोलती यूं भी बंद ही रहेगी.

बेशक बीसीसीआई अपनी शक्ति का कई बार दुरुपयोग करती है, लेकिन यह याद रखना होगा कि इसी शक्ति ने पश्चिम देशों के क्रिकेटीय साम्राज्य को एशियन उपमहाद्वीप की तरफ लाने का काम किया है.

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