मसान सुलगती तो है पर धधक नहीं पाती
मसान फ़िल्म जो न खुल
के हंसाती है, न रुलाती है, न परेशान करती है, न हैरान करती है, असली दुनिया के बीच
लाती तो है, जोड़ती भी है पर उतना नहीं जितना आप चाहते हैं.
हां तीन चीज़ें मसान
को एक बार देखने लायक तो बनाती हैं. अभिनय, सिनेमेटोग्राफ़ी और बनारस की वह सेटिंग जिसमें
दो साधारण और यथार्थ-सी कहानियों को बुनने की एक हद तक कामयाब कोशिश की गई है.
मसान में वो बनारस
नहीं है जहां महादेव की आरती के दौरान सुनहले होते घाट और शाही तेवर में मंत्रोच्चार
करते पंडे हैं, हां सुनहला रंग तो मसान घाट का भी है पर ये पराजय और मातम का रंग ज़्यादा
है. जहां मुर्दा शरीर भी हार मान चुका है और ज़िन्दा लोग भी हारे हुए हैं. और उन सबके
बीच आपको मुग्ध कर देने वाला दीपक (विकी कौशल). दीपक की कहानी में आप उसके साथ होते
हैं, शालू गुप्ता को फ़्रेंड-रिक्वेस्ट भेजने से लेकर, हंसने, इश्क़ लड़ाने, गुब्बारे उड़ाने, परेशान होने,
रोने और उबरने की कोशिश करने तक.
बातों-बातों में बशीर
बद्र, मिर्ज़ा ग़ालिब और निदा फ़ाज़ली का ज़िक्र कुछ यूं है मानो वरुण ग्रोवर हम सब की ओर
से उन्हें शुक्रिया कह रहे हों. और जिस किरदार के ज़रिए शुक्रिया कहलवाया गया है वो
इतना प्यारा है कि वो दीपक को ना भी कह देती तब भी आप ग़लत कहने के बजाय उसे बेनिफ़िट
ऑफ़ डाउट देना पसंद करते. श्वेता त्रिपाठी का किरदार छोटा मगर मुक्क्मल है.
कई छोटे किरदार हैं,
और बेहतरीन हैं. चाहे दीपक को देखकर गर्व से भर जाने वाला उसका बाप हो, या अपने पेशे
से तंग आ चुका उसका भाई सिकंदर हो, या पुलिस ऑफ़िसर मिश्रा जी हों या फिर दुनिया को
अपने ठेंगे पर रखने वाले तेवर के साथ झोंटा हो.
फ़िल्म में एक जुआ भी
है जिसे देखकर जितना मज़ा गंगा-किनारे वालों को आएगा, उतना ही शहरों की क़ैद में रहने
वालों को. तीन पत्ती और चमकते-धमकते कैसिनो वाले दृश्य इस जूए के सामने पानी भरेंगे.
यथार्थ का अपना मज़ा है. हालांकि इसके साथ एक जोख़िम भी है. यथार्थ कई बार आपको ख़ुद से
बहुत जोड़ लेता है तो कई बार ये सुनी और कही जाने लायक कहानी होने के बावजूद मानसिक
और जज़्बाती तौर पर आपको छेड़ नहीं पाता.
देवी की कहानी के साथ
कुछ ऐसा ही हुआ है. किरदार और अभिनय के मामले में फ़िल्म का ये हिस्सा दूसरे जितना ही
जानदार है पर इस कहानी में न आप किसी किरदार के लिए सहानुभूति महसूस करते हैं न ही
समानुभूति. मध्यवर्गीय मजबूर बाप विद्याधर के किरदार को संजय मिश्रा ने उतनी ही सुन्दरता
से साधा है जितनी उन्होंने रजत कपूर की आंखों देखी में बाउ जी के किरदार को साधा था,
पर बाप-बेटी की नज़दीकियों के बावजूद इतनी दूरियां हैं, यथार्थ ही इतनी संवादहीनता है
कि उस कोण से जुड़ पाना मुमकिन ही नहीं हो पाता. ऋचा चड्ढा तो जैसे हैं ही नहीं, सिर्फ़
और सिर्फ़ देवी है. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में पैदा की गई उम्मीदों पर ऋचा पूरी तरह खरी
उतरती हैं. उनके हिस्से नाम मात्र के संवाद हैं पर वो अपने हाव-भाव से ही बहुत कुछ
कह जाती हैं.
देवी की कहानी के सारे
किरदार बहुत सलीके से निभाए गए हैं, पुलिस वाले से लेकर टिकट काटने वाले पंकज त्रिपाठी
तक. मगर इस कहानी में आप उतर नहीं पाते, दर्शक भर बने रहते हैं. क्यों? इसके जवाब तक अभी नहीं पहुंच सका हूं.
दोनों कहानियां रेलवे
ट्रैक की तरह कभी समानांतर तो कभी एक-दूसरे को काटती हुई गुज़रती हैं. पहली बार जब देवी
मसान घाट पहुंचती है, दूसरी बार तब जब गंगा में डूबकी मारते हुए झोंटा को शालू की अंगूठी
हाथ लगती है और उसे बेचकर मजबूर बाप विद्याधर देवी को बचाने के लिए रिश्वत देता है.
और तीसरी और आख़िरी बार संगम पर. दोनों कहानियों के संगम पर भी. अगर ये वरुण धवन का
कमाल है तो उन्हें, और अगर नीरज घेवन का आइडिया है तो उन्हें एक बार दंडवत प्रणाम तो
करना तो बनता है.
मसान बिना किसी शक के एक अच्छी फ़िल्म तो है ही, पर ये असाधारण हो सकती थी.
मसान बिना किसी शक के एक अच्छी फ़िल्म तो है ही, पर ये असाधारण हो सकती थी.
wowwwww...loved it....:)
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